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हमारी प्रेरणा

संत कमल के पुष्प के समान लोकजीवनरूपी वारिधि में रहता है, संचरण करता है, डुबकियाँ लगाता है, किंतु डूबता नहीं। यही भारत भूमि के प्रखर तपस्वी, चिंतक, कठोर साधक, लेखक, राष्ट्रसंत आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के जीवन का मंत्र घोष है ।

विद्या गुरु देशना:

  • हित का सृजन और अहित का विसर्जन यही शिक्षा का लक्षण है।
  • शिक्षा का उद्देश्य जीवन निर्वाह नहीं, जीवन निर्माण है।
  • शिक्षा का कार्य संस्कारों के संरक्षण के साथ भविष्य का विकास करना है।
  • विद्या अर्थकरी नहीं, परमार्थकरी होनी चाहिये।
  • शिक्षा प्रणाली की यह जिम्मेदारी है कि वह विद्यार्थी को एक नेतृत्व प्रदान करने वाला कर्तव्यनिष्ठ नागरिक बनाये, जिससे वह मदद की चाह रखने की बजाय मदद करने की भावना रखे ।
  • सत्य, अहिंसा, शान्ति का पाठ यदि बच्चों को नहीं मिलेगा तो आतंकवाद कभी समाप्त नहीं होगा ।
  • शिक्षकों के दायित्व का कोई पार नहीं हैं। दायित्व को समझनेवाला ही उसे स्थायित्व दे सकता है ।
  • सुशिक्षित व्यक्ति यदि कर्तव्यनिष्ठ नहीं होता तो शिक्षा का प्रयोजन ही क्या है ?
  • ज्ञान भाषात्मक नहीं भावात्मक होना चाहिये ।
  • शिक्षक को अपनी आवश्यकताओं को सीमित करके आत्म संतुष्ट होकर संस्कार देना चाहिये।
 
परिचय
पिता श्री श्री मल्लप्पाजी अष्टगे (मुनिश्री मल्लिसागरजी)
माता श्री श्रीमती श्रीमतीजी (आर्यिकाश्री समयमतिजी)
भाई/बहन चार भाई, दो बहन
जन्म स्थान चिक्कोड़ी (ग्राम-सदलगा के पास), बेलगाँव (कर्नाटक)
जन्म तिथि आश्विन शुक्ल पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) वि.सं. 2003, 10-10-1946, गुरुवार, रात्रि में 12:30 बजे
जन्म नक्षत्र उत्तरा भाद्र
शिक्षा 9वीं मैट्रिक (कन्नड़ भाषा में)
ब्रह्मचर्य व्रत श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, चूलगिरि (खानियाजी), जयपुर(राजस्थान)
प्रतिमा सात (आचार्यश्री देशभूषणजी महाराज से)
स्थल 1966 में श्रवण बेलगोला, हासन (कर्नाटक)
मुनि दीक्षा स्थल अजमेर (राजस्थान)
मुनि दीक्षा तिथि आषाढ़, शुक्ल पंचमी वि.सं., 2025, 30-06-1968, रविवार
आचार्य पद तिथि मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया-वि.सं. 2029, दिनांक 22-11-1972, बुधवार
आचार्य पद स्थल नसीराबाद (राजस्थान) में, आचार्यश्री ज्ञानसागरजी ने अपना आचार्य पद प्रदान किया ।
मातृभाषा कन्नड़
 

वर्षों पूर्व शरद पूर्णिमा की दुधिया रात में शुभ्र शशि की आभा को भी फीका करने वाली एक प्रकाश पुंज आत्मा प्राची की सिंदूरी कोख से उछलकर ऋषि- मुनियों की तपोभूमि, अहिंसास्थली इस भारत भूमि पर अवतरित हुई । वह आत्मा कोई और नहीं हम सब के आराध्य, जैन व अजैनों के भगवान्, चेतन-अचेतन कृतियों के सृजेता, इन्द्रियसुख विजेता, मोक्षमार्ग के प्रणेता आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज हैं, जिनका जन्म कर्नाटक की सदलगा भूमि पर श्री मल्लप्पा जी अष्टगे और माता श्रीमती जी के घर आंगन में शरद पूर्णिमा 10 अक्टूबर 1946 को हुआ था । आप अपने माता-पिता की 6 संतानों में द्वितीय संतान होकर भी अद्वितीय थे ।

लौकिक शिक्षा कन्नड़ भाषा में 9 वीं मैट्रिक पास आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज सचमुच यथानाम तथा गुण हैं, लौकिक और परलौकिक विद्या के पारगामी हैं । कन्नड़, हिन्दी, अंग्रेज़ी, मराठी, संस्कृत व प्राकृत भाषा में तज्ञ, आध्यात्म व ग्रंथो के ज्ञाता, दशर्नशास्त्र, नीतिशास्त्र, इतिहास, भूगोल, विज्ञान व गणित जैसे सभी लौकिक विषयों में पारंगत ज्ञान के धनी हैं ।

स्वभाव से ही मृदु, हितमित प्रियभाषी, जीवदया के मसीहा, दिगम्बरत्व के पुजारी, जैनत्व के गौरव, साधना के अविराम यात्री बालक विद्याधर ने अपने वैराग्य की अनंत यात्रा चूलगिरि अतिशय क्षेत्र राजस्थान की भूमि पर ब्रह्मचर्य व्रत के साथ शुरु की और श्रवणबेलगोला कनार्टक की पवित्र भूमि पर देशभूषण जी महाराज से सात प्रतिमा के व्रत अंगीकार किये ।

मोक्षाभिलाषी, वैराग्यदृढ़, श्रमणचर्या आचरित करने के तीव्र पिपासु ब्र. विद्याधर की यह प्यास उस समय शांत हुई जब अजमेर की पावन भूमि पर मुनिश्री 108 ज्ञानसागर जी महाराज के करकमलों से मुनिदीक्षा धारण कर मोक्षपथ के स्थायी सदस्य बन गये ।

ब्र. विद्याधर बन गये मुनि 108 विद्यासागर जी महाराज । अब धरती ही जिनका बिछौना, आकाश ही जिनका उड़ौना और दिशाएँ ही जिनका वस्त्र थी ऐसे निर्ग्रंथ साधक सभी ग्रंथियों की ग्रंथि को सुलझाने हेतु दिन-रात, अथक परिश्रम में लीन हो गये । साथ ही अपने वयोवृद्ध गुरु के रुग्ण शरीर की सेवा में अहर्निश रहने लगें । ज्ञान प्राप्ति की असीम भावना व लगन ने एक कन्नड़ भाषी को भी संस्कृत व प्राकृत भाषी ग्रंथो का ज्ञाता बना दिया । उनकी लगन, विनय, समर्पण व निस्वार्थ: सेवा से प्रभावित आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने उन्हें आचार्य पद देने का विचार किया और अपने मनोभाव को विद्यासागर जी के समक्ष प्रकट किया किन्तु सांसारिक पद लिप्सा से निर्लिप्त मुनिश्री को ये बात कहाँ रुचने लगी । उन्होंनें इन्कार कर दिया किन्तु ज्ञानसागर जी ने आदेश पूर्वक करुणापूर्ण हदय से गुरुदक्षिणा मांगी और कहा – “तुम्हें इस वृद्ध गुरु को निर्दोष संल्लेखना करानी है अत: आचार्य पद स्वीकारो” । गुरु के आदेश को हितकारी समझ भारी मन से उन्होंने ये आज्ञा शिरोधार्य की और तन-मन से गुरु सेवा करते हुए गुरूजी की संल्लेखना सम्पन्न करायी ।

गुरु का साया सिर से उठा, बचे मुनि विद्यासागर जी मुनि नितांत, अकेले किन्तु, क्षेत्र की दूरी, दूरी नहीं होती, “संघ को गुरुकुल बनाना” जैसे गुरु उद्गारों ने उनकी चेतना को झंकृत किया और गुरु की तस्वीर हृदय में संजोये गुरु आज्ञा पालन हेतु निकल पड़ा मोक्षपथ का अविराम यात्री अकेले ही.....

और तब से अब तक अपने प्रति वज्र से भी कठोर, दूसरों के प्रति नवनीत से भी कोमल बनकर शीत, ताप एवम् वर्षा के गहन झंझावातों में भी आप साधना हेतु अरुक, अथक रूप में प्रवर्तमान हैं । श्रम, विनय, अनुशासन, संयम तप और त्याग की अग्नि में तपी आपकी साधना गुरु आज्ञा पालन और जीवमात्र के कल्याण की भावना से सतत प्रवाहित है ।

गुरूजी की त्याग-तपस्या :

  • आजीवन नमक, शक्कर, हरी, तेल का त्याग
  • सूखे मेवा (dry fruits) का त्याग
  • सभी प्रकार के भौतिक साधनो का त्याग
  • थूकने का त्याग 
  • एक करवट में शयन
  • पूरे भारत में सबसे ज्यादा दीक्षा देने वाले
  • पूरे भारत में एक मात्र ऐसा संघ जो बाल ब्रह्मचारी है ।
  • पूरे भारत में एक ऐसे आचार्य जिनका लगभग पूरा परिवार ही संयम के साथ मोक्षमार्ग पर चल रहा है ।
  • शहर से दूर खुले मैदानों में नदी के किनारो पर या पहाड़ो पर अपनी साधना करना ।
  • अनियत विहारी यानि बिना बताये विहार करना ।
  • प्रचार प्रसार से दूर-मुनि दीक्षाएं, पीछी परिवर्तन इसका उदाहरण ।
  • शरीर का तेज ऐसा जिसके आगे सूरज का तेज भी फीका और कान्ति में चाँद भी फीका है ।

नीरस आहार लेकर भी सरस व्यक्तित्व के धनी आचार्य विद्यासागरजी ने जन कल्याण के भाव से कई चेतन व अचेतन कृतियों की रचना की ।

साहित्य के क्षेत्र में अनेक कृतियां आपने लिखी । सर्वाधिक चर्चित कालजयी अप्रतिम कृति ‘मूकमाटी’ महाकाव्य है जिसने श्रावक से लेकर संत तक, मूक से लेकर ‘मुखरित’ तक सभी के मन को झंकृत किया है । 300 से अधिक साहित्यकारों की लेखनी मूकमाटी को रेखांकित कर चुकी हैं 30 से अधिक शोध प्रबंध इस पर लिखे जा चुके हैं । मूकमाटी का महत्व इसमें लिखी एक पंक्ति “मूकमाटी ने आलोचना के मिसयुग को लोचन दिए” से ही ज्ञात हो जाता है ।

शिक्षा के क्षेत्र में - अनेक शिक्षण, प्रशिक्षण संस्थान इनकी प्रेरणा से संचालित हो रहे हैं । इसमें प्रशासनिक प्रशिक्षण संस्थान जबलपुर व दिल्ली, जिसमें अनेकों IAS, कलेक्टर, डिप्टी कलेक्टर, DYSP, SI, अनेक ऑफिसर देशभर में प्रशासनिक क्षेत्र में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। इसके अलावा गुरुकुल पद्धति पर आधारित पाँच आवासीय विद्यालय उनकी समर्पित शिष्याओं प्रतिभामण्डल की बहनों द्वारा संचालित है। प्रतिभास्थली ज्ञानोदय विद्यापीठ जबलपुर(म.प्र.), डोंगरगढ़ (छत्तीसगढ), रामटेक (महाराष्ट्र), इंदौर(म.प्र.) और पपौराजी (म.प्र.) 4 से 12 वीं तक CBSE पद्धति पर आधारित है।

चिकित्सा के क्षेत्र में – ‘भाग्योदय तीर्थ चिकित्सालय’ सागर में संचालित है जो सभी आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं से परिपूर्ण है ।

जन-जन के कल्याण की भावना संजोए महान संत का हृदय पाश्चात्य संस्कृतिक के गर्त में समाती भारतीय संस्कृति को बचाने और भारत को वापस लौटाने के लिये तड़प उठा और उठाया उन्होंने बीड़ा और कर दिये कई अनोखे कार्य जैसे –

  • इंडिया का अर्थ ओल्ड फैशन है अर्थात् पुराने ढ़र्रे के विरोधी तत्व - अत: भारत को भारत कहें इंडिया नहीं ।
  • मातृभाषा हो भारतीय शिक्षा का माध्यम ।
  • हस्ताक्षर अभियान – हस्ताक्षर मातृभाषा में हो ।
  • दुकानों, कार्यालयों व सरकारी भवनों में लगे साइन बोर्ड हिन्दी में होना चाहिए ।
  • गाँव – गाँव की उन्नति के लिए ग्रामीण विकास योजनायें संचालित हों ।
  • वृद्ध, अनाथों, आश्रितों के लिए अनेक योजनायें - शांतिधारा दुग्ध योजना (गौसंवर्धन व ग्रामीण को रोजगार हेतु)
  • ग्रामीण क्षेत्रों से युवाओं के पलायन को रोकने व घर में रहकर स्वाभिमान से आय अर्जित करने के लिए जगह-जगह पर हथकरघा केंद्र खोले गये जिसमें अनेक इंजीनियर भाइयों ने अपने पैकेज छोड़कर इसमें योगदान देने का संकल्प लिया है ।

आज जैन ही नहीं समस्त मानव जाति के गौरव है, अकेले दिगंबर जैन समाज के नहीं अपितु समस्त समाज के संत शिरोमणि है !!

  • जिनके ह्रदय में मानव जाति की ही नहीं वरन मूक पशुओं की वेदना का भी ख्याल है !!
  • जिन्होंने माटी जैसी अकिंचिन, पद-दलित और तुच्छ वस्तु पर महाकाव्य मूकमाटी रच कर उसे अनमोल कर दिया !!
  • जिनकी रचनाएं मात्र कृतियाँ ही नहीं है, अकृत्रिम चैत्यालय है !!
  • जिन पर अर्ध शतक से ज्यादा शोध हो चुके हैं, लेकिन जिनके बारे में कुछ कहना सूरज को दीप दिखाने जैसा है !!
  • जो उन्हें जानते हैं वो उनकी वीतरागी छवि में खो जाते हैं, जो उन्हें नहीं जानते है वो अचंभित हो जाते हैं कि क्या है इस संत में !!
  • जिनके साथ में मात्र एक पिच्छी-कमण्डल है उसके सिवा भौतिकता के रंच मात्र भी साधन नहीं, फिर भी असंख्य भक्तगण नतमस्तक खड़े हैं !!
  • किसी को कोई प्रलोभन भी नहीं देते उसके बाद भी इतना जनसमूह जिनसे सम्मोहित होकर उनके पीछे चल देता है !!
  • पूरे समंदर स्याही बन जाएँ और पूरे वृक्ष कलम बन जायें फिर भी जिनके गुणों को पूर्ण व्यक्त ना कर पाएं !!
  • जिनके बारे में, जिनकी त्याग तपस्या कृतियों आदि के बारे में लिखने बैठे तो शब्द वर्गणा, समय, विचार, सब कम पड़ जायेंगे !!

उनका नाम... उनकी चर्याओं से उनकी चर्चाओं से पता चलता है ... हमारे गुरुवर हमारे भगवन हैं ...

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